अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच अलास्का में हुई उच्चस्तरीय बैठक वैश्विक राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखी जा रही है। रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में इस शिखर वार्ता ने कई संकेत दिए हैं— न केवल युद्धविराम की अवधारणा को पीछे छोड़ शांति समझौते की ओर रुख करने का इरादा, बल्कि अमेरिका की विदेश नीति में भी एक संभावित बदलाव की आहट।
राष्ट्रपति ट्रंप ने स्पष्ट रूप से कहा कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को समाप्त करने का “सबसे अच्छा तरीका” है कि एक सीधे शांति समझौते की दिशा में बढ़ा जाए, न कि केवल एक अस्थायी युद्धविराम के ज़रिए, जो अक्सर टूट जाया करते हैं। देखा जाये तो यह ट्रंप की पूर्ववर्ती नीति के ठीक उलट है, जहां अमेरिका और यूरोपीय सहयोगी देशों ने अब तक युद्धविराम को प्राथमिकता दी थी। ट्रंप का यह कथन कि “रूस एक बहुत बड़ी शक्ति है और यूक्रेन नहीं है”, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है— जहां शक्ति संतुलन ही निर्णयों को प्रभावित करता है।
वहीं यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेन्स्की ने इस पहल का स्वागत करते हुए अमेरिका, रूस और यूक्रेन के बीच त्रिपक्षीय वार्ता की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने यह भी बताया कि अमेरिका की ओर से यूक्रेन की सुरक्षा गारंटी को लेकर सकारात्मक संकेत मिले हैं। ज़ेलेन्स्की सोमवार को वॉशिंगटन डी.सी. यात्रा पर जा रहे हैं, जहाँ वह ट्रंप से व्यक्तिगत रूप से मिलेंगे।
दूसरी ओर, रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने यह दावा किया है कि यदि ट्रंप 2022 के दौरान राष्ट्रपति होते, तो यूक्रेन से युद्ध ही नहीं होता। पुतिन का यह कथन दो बातों की ओर संकेत करता है। पहला यह है कि ट्रंप और पुतिन के बीच वैचारिक सामंजस्य है जो कूटनीति को सरल बना सकता है। दूसरा संकेत दर्शाता है कि रूस ट्रंप के साथ बातचीत को लेकर अधिक सहज है। हालांकि शिखर बैठक के बाद कोई ठोस समझौता घोषित नहीं किया गया, पर दोनों पक्षों ने इसे “उत्पादक” और “सकारात्मक” बताया।
वहीं अगर भारत की प्रतिक्रिया और आर्थिक आयाम को देखें तो भारत ने ट्रंप-पुतिन शिखर सम्मेलन का स्वागत करते हुए कहा है कि विश्व एक शीघ्र समाधान की प्रतीक्षा कर रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, “आगे का रास्ता केवल संवाद और कूटनीति के माध्यम से ही निकल सकता है।” हालांकि भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव भी उभरता दिखाई दे रहा है, क्योंकि ट्रंप ने एक तो भारत पर 25% अतिरिक्त शुल्क लगाने की घोषणा की है। दूसरा ट्रंप ने यह भी दावा किया है कि उनके निर्णय के कारण रूस ने भारत जैसा एक बड़ा तेल ग्राहक खो दिया है। यहां हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि ट्रंप-पुतिन शिखर सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति के बयान ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की विदेश नीति के दोहरे चरित्र को उजागर कर दिया है। पुतिन ने कहा कि अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के सत्ता में आने के बाद रूस और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यह बयान न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि अमेरिका की कथनी और करनी के बीच अंतर को भी रेखांकित करता है।
राष्ट्रपति ट्रंप एक ओर भारत, चीन और अन्य देशों पर यह आरोप लगाते हैं कि वे रूस से तेल खरीद कर यूक्रेन युद्ध को अप्रत्यक्ष रूप से फंडिंग कर रहे हैं। उन्होंने इस आधार पर भारत पर अतिरिक्त शुल्क तक लगा दिया है। लेकिन दूसरी ओर, अमेरिका खुद रूस के साथ व्यापार बढ़ा रहा है और यह तथ्य अब रूस के राष्ट्रपति की जुबानी दुनिया के सामने आया है। इस परिप्रेक्ष्य में, ट्रंप की विदेश नीति को तथाकथित नैतिकता की आड़ में चलने वाली ‘व्यवसायिक प्राथमिकता’ कहा जा सकता है। यदि रूस से व्यापार करना युद्ध को फंड करना है, तो यह नियम केवल भारत, चीन या अन्य विकासशील देशों पर ही क्यों लागू होता है? क्या यही वैश्विक शक्ति का वह पक्षपाती चेहरा नहीं है, जो अपने लिए अलग मानक और दूसरों के लिए अलग नियम गढ़ता है?
देखा जाये तो भारत जैसे देशों के लिए यह स्थिति बेहद संवेदनशील है। एक ओर उसे अपनी ऊर्जा ज़रूरतों और आर्थिक हितों को संतुलित करना है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका के राजनीतिक दबाव का सामना भी करना है। लेकिन यह स्पष्ट है कि अमेरिका की नीति केवल रणनीतिक स्वार्थों पर आधारित है, न कि किसी नैतिक मूल्यों पर। ट्रंप के नेतृत्व में यदि अमेरिका रूस से व्यापार बढ़ा रहा है, तो उसे यह नैतिक अधिकार नहीं रह जाता कि वह अन्य देशों को नैतिकता का पाठ पढ़ाए। यह दोहरापन न केवल अमेरिकी नीति को अविश्वसनीय बनाता है, बल्कि वैश्विक दक्षिण (Global South) देशों को अपने स्वतंत्र निर्णयों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित भी करता है।
बहरहाल, डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रस्तुत नई रणनीति— जिसमें युद्धविराम की जगह स्थायी शांति समझौते को प्राथमिकता दी जा रही है, एक निर्णायक मोड़ हो सकता है। यदि यह पहल सफल होती है, तो न केवल लाखों लोगों की जान बच सकती है, बल्कि वैश्विक स्थिरता को भी बल मिल सकता है। हालांकि, इस प्रक्रिया में कई जटिलताएँ हैं। जैसे— यूक्रेन की सुरक्षा, रूस की शर्तें, यूरोपीय देशों की भूमिका और अमेरिका की बदलती नीति। भारत जैसे देशों के लिए भी यह एक परीक्षा की घड़ी है, जहां कूटनीति और आर्थिक हितों के बीच संतुलन साधना होगा। अंततः, यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि क्या यह वार्ता स्थायी शांति की दिशा में निर्णायक कदम होगी, परंतु इसमें संभावनाओं के नए द्वार अवश्य खुले हैं। यह घटनाक्रम यह भी दर्शाता है कि शांति केवल हथियारों से नहीं, बल्कि विचारों, संवाद और नेतृत्व की परिपक्वता से आती है। अब देखना यह है कि यह “संभावना” वास्तव में “वास्तविकता” बनती है या नहीं।