सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए उसकी उस याचिका को सिरे से खारिज कर दिया, जिसमें सरकार ने ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंपने की मांग की थी। हम आपको बता दें कि केंद्र की ओर से यह मांग सुनवाई के दौरान अचानक रखी गई थी जब याचिकाकर्ताओं की बहस पूरी हो चुकी थी। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने तीखा रुख अपनाते हुए कहा, “हमें भारत सरकार से ऐसी चालबाज़ी की उम्मीद नहीं थी। अदालत के साथ इस तरह का खेल अस्वीकार्य है।” न्यायमूर्ति गवई, जो बीस दिनों में सेवानिवृत्त होने वाले हैं, उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार का यह रवैया यह दर्शाता है कि वह मेरी पीठ के समक्ष सुनवाई से बचना चाहती है।
पीठ ने कहा, “हमने याचिकाकर्ताओं की ओर से सभी तर्कों को विस्तार से सुना। अटॉर्नी जनरल ने एक बार भी यह नहीं बताया कि केंद्र सरकार इस मामले को पाँच न्यायाधीशों की पीठ को सौंपना चाहती है। अब, जब बहस पूरी हो चुकी है, तो यह याचिका केवल देरी की रणनीति प्रतीत होती है।” वहीं, केंद्र सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने सफाई दी कि सरकार का कोई अनुचित इरादा नहीं था। उन्होंने कहा, “मामले में संविधान की व्याख्या से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, इसलिए इसे संविधान पीठ के पास भेजना उपयुक्त होगा।” मगर पीठ ने इसे स्वीकार नहीं किया।
न्यायमूर्ति गवई ने कठोर टिप्पणी की कि “आधी रात को दाखिल यह आवेदन न्यायिक प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ है। हमने याचिकाकर्ताओं की बहस पूरी सुन ली है, अब सरकार इस आधार पर सुनवाई को टाल नहीं सकती।” हालांकि पीठ ने स्पष्ट किया कि यदि उसे लगता है कि मामला संविधान की गंभीर व्याख्या से जुड़ा है, तो वह स्वयं इसे पाँच न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज सकती है। फिलहाल, अदालत ने आगे की सुनवाई 7 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दी है।
हम आपको बता दें कि केंद्र ने अपने आवेदन में कहा था कि यह मामला संविधान की व्याख्या से जुड़े ऐसे प्रश्न उठाता है जिन पर अनुच्छेद 145(3) के तहत कम से कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ को विचार करना चाहिए। साथ ही यह भी प्रश्न उठाया गया कि क्या सर्वोच्च न्यायालय संसद को किसी विशिष्ट रूप में कानून बनाने का निर्देश दे सकता है? और क्या यह विभाजन सिद्धांत (Doctrine of Separation of Powers) का उल्लंघन नहीं होगा?
देखा जाये तो मुख्य न्यायाधीश गवई की तीखी टिप्पणी केवल किसी एक याचिका या सुनवाई तक सीमित नहीं है, यह शासन और न्यायपालिका के बीच बढ़ती असहजता का संकेत भी है। जब सर्वोच्च न्यायालय को यह कहना पड़े कि “सरकार अदालत के साथ चालबाज़ी न करे”, तो यह केवल एक संस्था की फटकार नहीं बल्कि लोकतंत्र के संतुलन पर चिंता की घंटी है। लोकतंत्र की रीढ़ न्यायपालिका तभी मज़बूत रह सकती है जब शासन उसे सहयोगी के रूप में देखे, न कि बाधा के रूप में। ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम पर पहले ही अदालत और सरकार के बीच कई बार मतभेद सामने आ चुके हैं। सरकार का यह आग्रह कि मामला संविधान पीठ को भेजा जाए, विधिक दृष्टि से गलत नहीं था, परंतु इसका समय यानि याचिकाकर्ताओं की बहस के पूर्ण होने के बाद और वह भी आधी रात को आवेदन दाखिल करना, शंकाओं को जन्म देता है।
मुख्य न्यायाधीश गवई का यह कहना कि “सरकार सुनवाई से बच रही है” वस्तुतः इस प्रवृत्ति की ओर संकेत है कि जब भी कोई संवैधानिक सवाल सरकार की नीतियों को चुनौती देता है, तब प्रक्रिया को लंबा खींचने की कोशिश की जाती है। यह न केवल न्यायिक अनुशासन के विरुद्ध है, बल्कि जनता के उस विश्वास पर भी चोट करता है जो अदालत की निष्पक्षता पर टिका है। सरकारों को यह समझना होगा कि अदालतें राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि संविधान की प्रहरी हैं। उनका दायित्व है कि वे सत्ता की सीमाएँ तय करें ताकि लोकतंत्र संतुलित रह सके।
बहरहाल, मुख्य न्यायाधीश की यह फटकार इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा का संदेश देती है कि कोई भी सत्ता, चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, न्यायिक प्रक्रिया के साथ “खेल” नहीं सकती। यह वक्त है जब कार्यपालिका को यह आत्ममंथन करना चाहिए कि वह अदालतों से टकराने की बजाय उनके प्रति पारदर्शी और उत्तरदायी बने क्योंकि अंततः, न्याय ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति है।