आपने ‘रस्सी जल गई, ऐंठन नहीं टूटी’ वाली कहावत सुनी होगी। यही हालात आज दुनिया के थानेदार अमेरिका की है। एक ओर रूस के दृढ़ निश्चय से यूक्रेन में नाटो देश यानी अमेरिका-यूरोप की खुराफात बुरी तरह से पिट चुकी है। वहीं, दूसरी ओर पाकिस्तान पर भारत के दमदार पलटवार और इजरायल पर ईरान के अप्रत्याशित पलटवार से अमेरिकी वैश्विक बादशाहत को करारा तमाचा लगा है। इन घटनाओं से साफ है कि अमेरिकी और यूरोपीय पश्चिमी देश अब अपराजेय नहीं रहे, बल्कि उनकी फूट डालो और शासन करो की नीति को एशियाई और अफ्रीकी देश भांप चुके हैं।
इधर पूर्वी देशों में चीनी जिद्द से रूस (सोवियत संघ के जनक) और भारत की अमेरिका विरोधी नीति सफल नहीं हो पा रही है, क्योंकि भारत विरोधी पाकिस्तान से अमेरिका के अलावा अब चीन भी प्रेम करने लगा है। इससे उत्तर कोरिया भी भारत के साथ खुलकर मैदान में नहीं आ पा रहा है, जबकि वह चीन और रूस का मित्र है। दो टूक शब्दों में कहा जाए तो रूस अब अमेरिकी और यूरोपीय देशों को करारा जवाब दे सकता है, भारत से दिलवा सकता है, लेकिन चीन के पाकिस्तान प्रेम और भारत से रणनीतिक शत्रुतापूर्ण प्रतिस्पर्धा से एशियाई देशों में अभी भी अमेरिकी-यूरोपीय दाल गल रही है।
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ऐसा इसलिए कि वैश्विक कूटनीति में सभी देश अपना-अपना हित देख रहे हैं। इधर भारत के विश्वव्यापी कूटनीतिक प्रभावों से अमेरिका-यूरोप व अमेरिका-अरब देशों में जो रणनीतिक व कारोबारी खटास की नींव पड़ी है, अरब देशों में अमेरिकी चौधराहट को जो तगड़ा धक्का लगा है, उससे अमेरिका बौखलाया हुआ है। कहाँ वह भारत को अपने पाले में करके पहले चीन को सबक सिखाता और फिर पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रखकर भारत को कमजोर करता। लेकिन भारत के चतुर मोदी प्रशासन ने रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस से पुरानी दोस्ती का हवाला देते हुए जो वफादारी दिखाई, उससे अमेरिकी शतरंज की चाल बिखर गई और उसके हथियार निर्माता कम्पनियों के तमाम अरमानों पर पानी फिर गया।
ऐसा इसलिए कि भारत के प्रशासन ने सूझबूझ के साथ कदम बढ़ाते हुए अमेरिकी, रूसी, चीनी, यूरोपीय, अरब, अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई और दक्षिण अमेरिकी और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ जो व्यवहारिक और गिव एंड टेक भरे कदम उठाए, उससे जहां एक ओर रूस-भारत के सम्बन्धों को मजबूती मिली, वहीं अमेरिका और उसके कारोबारी पार्टनर चीन (अब प्रतिस्पर्धी देश) की आर्थिक गतिविधियों और सैन्य रणनीतियों को करारा जवाब मिला। इसी के बदौलत जहां अफगानिस्तान से भारत के रिश्ते पटरी पर लौटे, वहीं इजरायल से मित्रता के बावजूद ईरान से सम्बन्ध खराब नहीं हुए। इन्हीं सब बातों को लेकर अमेरिका बौखलाया हुआ है।
दरअसल, अमेरिका को गलतफहमी है कि अमेरिका-यूरोप का सहयोग लेकर भारत भी चीन की तरह आशातीत प्रगति कर चुका है और जब तक ये दोनों देश रूस के साथ मित्रता रखेंगे, तब तक नाटो देशों की वैश्विक बादशाहत को रूस, भारत, ईरान जैसे देशों से चुनौती मिलती रहेगी। यही वजह है कि रूस के साथ व्यापार को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया चेतावनी भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर चल रही बातचीत में अड़चन पैदा कर सकती है। ऐसा इसलिए कि यूक्रेन युद्ध रुकवाने में नाकाम रहे डोनाल्ड ट्रंप अब दूसरे जरियों से मॉस्को पर दबाव बनाना चाहते हैं। हालांकि इसमें सफलता की गारंटी लेशमात्र भी नहीं है और इससे दुनिया में नया तनाव पैदा हो सकता है।
देखा जाए तो ट्रंप ने युद्ध खत्म करने के लिए रूस को और 50 दिनों की मोहलत दी है, और यही डेडलाइन उन्होंने उन देशों के लिए रखी है, जो रूस से तेल समेत दूसरे सामान खरीदते हैं। यानी भारत और चीन, जिनके मतलबी सम्बन्ध रूस और अमेरिका दोनों से हैं। यही वजह है कि अमेरिका की नई धमकी है कि इसके बाद इन देशों पर शत (100) प्रतिशत टैरिफ लगाया जाएगा। उधर, यही बात नैटो महासचिव मार्क रूट भी दोहरा रहे हैं। उन्होंने तो सीधे-सीधे भारत, चीन और ब्राजील का नाम लिया कि इन देशों को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से शांति के लिए बात करनी चाहिए। क्योंकि ये देश ही रूस से तेल खरीदते हैं।
बताया जाता है कि कुछ वक्त पहले तक ट्रंप इस बात पर डटे थे कि किसी भी सूरत में यूक्रेन युद्ध रुकना चाहिए। लेकिन, जब उनका दबाव रूस पर कारगर नहीं हुआ, तो उन्होंने अपनी चुगलखोर रणनीति बदल दी। अब वह यूक्रेन को हथियार सप्लाई करने के लिए तैयार हैं और पूछ भी रहे हैं कि क्या रूस पर हमला कर लोगे? ऐसा इसलिए कि अमेरिकी और दूसरे पश्चिमी देश चाहते हैं कि रूस को झुकाने में बाकी दुनिया भी उसका साथ दे- खासकर भारत और चीन।
उल्लेखनीय है कि साल 2022 में, जब से रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है, तब से अमेरिका की यही कोशिश है। पहले भी उसने रूस से तेल खरीदने को लेकर भारत पर सवाल उठाए थे और यहां से उसे इसका माकूल जवाब भी मिला था कि दुनिया के हर हिस्से के अपने-अपने हित होते हैं और इस पर यदि अपनी अपनी न चलाई जाए, तो यही सबके हित में बेहतर है। अमेरिका-यूरोप जो काम खुद करते हैं, वही करने के लिए पूरब के देशों को रोकते हैं, ताकि उनकी वैश्विक बादशाहत को रूसी-चीनी-भारतीय चुनौती कभी नहीं मिले। इसके लिये पाकिस्तान, अरब देश और ताइवान, दक्षिण कोरिया, जापान आदि उनके मोहरे हैं।
जहां तक तेल का व्यापार का सवाल है तो साल 2024-25 में भारत और रूस के बीच 68.7 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था। इसमें सबसे ज्यादा फोकस में रहा तेल। जबकि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के पहले तक देश की ज्यादातर तेल जरूरत मिडल ईस्ट से पूरी होती थी और तब रूस से केवल एक फीसदी क्रूड ऑयल ही आता था। लेकिन आज यह हिस्सा एक तिहाई से ज्यादा है। मई 2025 में भारत ने रूस से हर दिन करीब 20 लाख बैरल तेल मंगाया था। इस व्यापार के पीछे साधारण-सा लॉजिक है, बचत। इसलिए भारत अमेरिका के समक्ष अपनी बात मजबूती से रखता है।
कहना न होगा कि हर द्विपक्षीय वैश्विक रिश्ते को मुनाफे में तौलने वाले कारोबारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत-रूस संबंधों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। वाकई उनके दबाव बनाने के पीछे एक वजह ब्रिक्स (BRICS) नामक वैश्विक संगठन भी है, जिसकी सक्रियता उन्हें पसंद नहीं आ रही। क्योंकि इससे जी-7 देशों को चुनौती मिलती है। इसलिए भारत को इस मामले में अमेरिका के सामने अपना पक्ष मजबूती से रखना चाहिए, जिसे पिछली बाइडन सरकार ने समझा भी था। एक तरफ तो डोनाल्ड ट्रंप रूस को जी-7 में शामिल करके जी-8 और चीन को शामिल करके जी-9 बनाना चाहते हैं, लेकिन दुनिया की तीसरी बड़ी सैन्य शक्ति और चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति भारत को पीछे धकेलना चाहते हैं, जिससे भारत का कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन अमेरिकी वैश्विक चौधराहट धीरे धीरे चीन द्वारा खत्म कर दी जाएगी। शुरुआत हो चुकी है।
इसलिए भारत की आशातीत प्रगति पर ब्रेक के बाद उठती अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की खींझ के वैश्विक कूटनीतिक मायने स्पष्ट हैं। भारत को अपने गुटनिरपेक्ष पथ पर अडिग रहना चाहिए। वह ग्लोबल साउथ को साधकर एक साथ अमेरिकी-चीनी चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम है। कभी बात-बात में युद्ध छेड़-छिड़वा देने वाला अमेरिका इसलिए चन्द्रायण व्रत कर लिया है, क्योंकि पहले वियतनाम में, फिर लीबिया, में, ततपश्चात अफगानिस्तान में जिस तरह से वह अपने मिशन में फेल हुआ, उससे इराकी सफलता और सीरियाई विफलता ने और अधिक दुःखदाई बना दिया। इसलिए अब अमेरिका खुद युद्ध नहीं करेगा, बल्कि यूक्रेन, इजरायल, पाकिस्तान आदि की पीठ पर हाथ रखकर करवाएगा। भारत इसे समझता है। इसलिए वह अमेरिकी जाल में नहीं फंसा, बल्कि चिड़ियों की तरह अमेरिकी जाल ही ले उड़ा, जिसे रूसी चूहे कुतर रहे हैं! शिकारी अमेरिका मन मसोसकर पाकिस्तान की शरण में शरणागत बना बैठा है। उसपर चीन का जो शिकंजा है सो अलग।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)