तमिलनाडु में पिछले चार वर्षों के दौरान 24 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत की जानकारी सामने आने के बाद राज्य में आक्रोश फैल गया है। हाल ही में सिवगंगा ज़िले में 27 वर्षीय अजीत कुमार की पुलिस कस्टडी में मौत ने इस मुद्दे को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है। यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है, बल्कि डीएमके सरकार के शासनकाल में हो रही लगातार कस्टोडियल डेथ्स की एक कड़ी है।
सरकारी प्रतिक्रिया: चुप्पी और लापरवाही
इन गंभीर मामलों के बावजूद सरकार की प्रतिक्रिया बेहद धीमी और औपचारिक रही है। लगातार होती इन मौतों के बावजूद ना तो कोई ठोस कार्रवाई हुई है, ना कोई बड़ी सुधार पहल। सरकार की यह चुप्पी अब राजनीतिक उदासीनता के रूप में देखी जा रही है।
विरोध से सत्ता तक: बदला रवैया, बदल गया तेवर
आज जो पार्टी सत्ता में है, वो कभी विपक्ष में रहते हुए ऐसी ही कस्टोडियल डेथ्स पर मुखर विरोध करती थी।
- 2020 में साथानकुलम में जयराज और बेन्निक्स की मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया था।
- डीएमके नेताओं ने तब इसे “मानवाधिकारों का उल्लंघन” कहा और उस समय की एआईएडीएमके सरकार से इस्तीफे की मांग की थी।
पर 2021 में सत्ता में आने के बाद, डीएमके की भूमिका खुद कठघरे में है। अब जब अजीत कुमार जैसे मामलों की बात हो रही है, तो वही नेता चुप्पी साधे हुए हैं, जिससे उन पर दोगलेपन (hypocrisy) और निष्क्रियता के आरोप लग रहे हैं।
तमिलनाडु में हिरासत में मौतों की सूची: एक काली हकीकत
राज्य भर में जिन लोगों की हिरासत में मौत हुई, उनमें शामिल हैं:
मुरुगानंदम (अरियालुर), गोकुल (चेंगलपट्टू), विग्नेश, अप्पुराज, आकाश (चेन्नई), भास्कर (कुड्डलोर), शंकर (करूर), प्रभाकरण, चिन्नादुरई, विग्नेश्वरन (नमक्कल), अजीत कुमार (पुडुकोट्टई), बालाकुमार (रामनाथपुरम), थंगमणि (तिरुवन्नामलै), द्रविडमणि, सुलैमान, थडिवीरन (त्रिची), संथकुमार (तिरुनेलवेली), थंगासामी (तिरुवल्लुर), कार्थी (तेनकासी), अर्पुथराजा, राजा (मदुरै), विग्नेश्वरन, जयकुमार, थंगापांडी (विलुपुरम), सेंथिल (विरुधुनगर, धर्मपुरी)।
इन मामलों में अक्सर जांच प्रक्रियाएं, हिरासत के दौरान व्यवहार और चिकित्सकीय सहायता की कमी पर सवाल उठते हैं — जो यह संकेत देते हैं कि ये व्यवस्थागत समस्याएं हैं, न कि केवल इक्का-दुक्का घटनाएं।
वादे जो पूरे नहीं हुए
2021 के चुनावी घोषणापत्र में डीएमके ने किए थे ये वादे:
- पुलिस की जवाबदेही तय करना
- मानवाधिकारों की रक्षा
- जांच प्रक्रियाओं में पारदर्शिता
- थानों में सीसीटीवी कैमरे
- स्वतंत्र शिकायत समितियों की स्थापना
पर अब चार साल बीत चुके हैं, और इन वादों में से अधिकांश अब तक कागज़ों तक ही सीमित हैं।
सीसीटीवी निगरानी, थानों की पारदर्शिता और जनता की सुरक्षा में गंभीर कमी बनी हुई है।
जनता का बढ़ता अविश्वास और गुस्सा
मानवाधिकार संगठनों और विपक्षी दलों का कहना है कि इन मौतों का सीधा संबंध है —
- पुराने और क्रूर जांच तरीकों से
- बेकाबू पुलिस बर्बरता से
- मेडिकल मदद की अनुपलब्धता से
वे मांग कर रहे हैं कि जब तक संरचनात्मक सुधार, जवाबदेही व्यवस्था और तत्काल हस्तक्षेप लागू नहीं होते, हिरासत में मौतों का सिलसिला जारी रहेगा।
न्याय पर सवाल, सरकार पर दबाव
अब सवाल यह है:
“आख़िर और कितनी ज़िंदगियाँ जाएंगी, तब सरकार जागेगी?” बढ़ता दबाव अब सरकार की न्यायप्रियता और विश्वसनीयता की कड़ी परीक्षा ले रहा है। यदि इस मुद्दे पर ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह सिर्फ़ राजनीतिक संकट नहीं, बल्कि जन विश्वास का पूर्ण पतन बन जाएगा।