दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधिकरणों द्वारा अवामी एक्शन कमेटी और जम्मू-कश्मीर इत्तिहादुल मुस्लिमीन पर लगाए गए प्रतिबंध को बरकरार रखने का फैसला केवल कानूनी प्रक्रिया का परिणाम भर नहीं है, बल्कि यह कश्मीर में स्थायी शांति और विकास की दिशा में एक निर्णायक कदम भी है। हम आपको बता दें कि मीरवाइज उमर फारूक की अध्यक्षता वाली एएसी और मसरूर अब्बास अंसारी के नेतृत्व वाली जेकेआईएम लंबे समय से ऐसे समूहों में गिने जाते रहे हैं जो धार्मिक और राजनीतिक मंच का उपयोग करते हुए अलगाववादी विचारधारा को पोषित करते रहे। न्यायाधिकरणों का यह निष्कर्ष कि ये संगठन गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं, केंद्र सरकार के उस रुख को मजबूती देता है कि कश्मीर की जनता को अस्थिर करने वाली ताकतों के प्रति शून्य सहनशीलता ही एकमात्र रास्ता है।
इस निर्णय को समझने के लिए हमें कश्मीर की बदलती परिस्थितियों पर ध्यान देना होगा। अनुच्छेद 370 और 35A के हटने के बाद केंद्र सरकार की रणनीति का स्पष्ट लक्ष्य यह रहा है कि घाटी में अलगाववाद और उग्रवाद की जड़ों को समाप्त किया जाए और कश्मीर की भावी पीढ़ियों के लिए शिक्षा, उद्यमिता और रोज़गार का माहौल बनाया जाए। यदि ऐसे संगठनों को खुली छूट दी जाती, तो वे न केवल युवाओं को गुमराह करते रहते बल्कि विकास की प्रक्रिया में निरंतर बाधा डालते।
मोदी सरकार की कश्मीर नीति की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसने ‘दोहरी रणनीति’ अपनाई— एक ओर जहां आतंक और अलगाववाद के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जा रही है, वहीं दूसरी ओर आधारभूत ढांचे, निवेश और सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से सामान्य नागरिकों को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। केंद्र सरकार यह भली-भांति समझती है कि जब तक कश्मीर की जनता यह अनुभव नहीं करेगी कि शांति उन्हें रोज़गार, शिक्षा और प्रगति का अवसर देती है, तब तक आतंकी संगठनों और उनके समर्थक गुटों का प्रभाव पूरी तरह समाप्त नहीं होगा।
इस संदर्भ में न्यायाधिकरणों का फैसला केवल कानूनन ठहराव नहीं है, बल्कि यह संदेश भी है कि भारत की लोकतांत्रिक और न्यायिक व्यवस्था किसी भी संगठन को हिंसा या अलगाववाद की छूट नहीं देगी। हम आपको यह भी बता दें कि यह निर्णय स्वतंत्र और निष्पक्ष मूल्यांकन के बाद दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि प्रतिबंध कोई राजनीतिक कदम मात्र नहीं बल्कि ठोस साक्ष्यों और राष्ट्रीय सुरक्षा की वास्तविक आवश्यकता पर आधारित है। इससे घाटी की आम जनता को भी यह भरोसा मिलेगा कि सरकार केवल दमन नहीं, बल्कि न्याय की कसौटी पर खरे उतरते हुए फैसले ले रही है।
कश्मीर के हित में इस कदम का महत्व इसलिए भी है कि यह युवाओं को एक स्पष्ट संदेश देता है— भविष्य का रास्ता शिक्षा और विकास से होकर जाता है, न कि उन संगठनों के पीछे चलने से जो केवल हिंसा और अस्थिरता को बढ़ावा देते हैं। जब प्रतिबंधित संगठनों के लिए वित्तीय स्रोत और वैधानिक मंच ही समाप्त हो जाएंगे, तो उनकी जड़ें स्वतः कमजोर पड़ेंगी। इससे घाटी में उस शांति को मजबूती मिलेगी जो निवेश, पर्यटन और रोज़गार के अवसरों के लिए अनिवार्य है।
देखा जाये तो मोदी सरकार की सराहना इस दृष्टि से भी की जानी चाहिए कि उसने आतंक और अलगाववाद से निपटने में किसी प्रकार की राजनीतिक तुष्टिकरण की राह नहीं अपनाई। पूर्ववर्ती दशकों में कई बार देखा गया कि राजनीतिक समीकरणों के दबाव में ऐसे संगठनों को अनदेखा कर दिया जाता था। परिणामस्वरूप, कश्मीर हिंसा के दुष्चक्र से मुक्त नहीं हो पाया। इसके विपरीत, वर्तमान सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश की अखंडता और संप्रभुता से खिलवाड़ करने वाली ताकतों के लिए कोई स्थान नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कश्मीर का भविष्य अब युवाओं की पुस्तकों, उद्यमियों की योजनाओं और आम नागरिकों के विश्वास पर टिका है। न्यायाधिकरणों का यह निर्णय उसी मार्ग को सुरक्षित करता है। यह कदम यह सुनिश्चित करता है कि घाटी में अलगाववादी राजनीति और उग्रवाद के लिए अब कोई वैधानिक जगह न बचे।
बहरहाल, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अवामी एक्शन कमेटी और इत्तिहादुल मुस्लिमीन पर प्रतिबंध को बरकरार रखने का निर्णय कश्मीर की स्थिरता, शांति और विकास के लिए दूरगामी महत्व रखता है। यह निर्णय केवल वर्तमान की समस्या का समाधान नहीं करता, बल्कि भविष्य के लिए भी यह मजबूत संदेश देता है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था आतंक और अलगाववाद को कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। मोदी सरकार की इस नीति की जितनी सराहना की जाए, कम है, क्योंकि यह न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरे राष्ट्र की सुरक्षा और एकता की रक्षा करती है।