राष्ट्रीय एकता दिवस पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल ने जब शासन और राष्ट्रनिर्माण के गहरे संबंध पर अपनी बात रखी, तो यह केवल प्रशासनिक विमर्श नहीं था— यह भारत और उसके पड़ोसी क्षेत्र के बदलते सामरिक परिदृश्य पर एक गंभीर टिप्पणी थी। सरदार वल्लभभाई पटेल की स्मृति में आयोजित व्याख्यान में डोभाल ने स्पष्ट कहा कि “शासन ही किसी राष्ट्र की शक्ति का वास्तविक आधार है”, और इसके अभाव में साम्राज्य, लोकतंत्र या किसी भी व्यवस्था का पतन निश्चित है।
उन्होंने हाल ही में बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में हुए सत्ता परिवर्तनों का उदाहरण देते हुए कहा कि यह सब “खराब शासन” के परिणाम हैं। यह टिप्पणी केवल पड़ोसी देशों की स्थिति पर नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता और भारत की सुरक्षा चिंताओं पर भी सीधा इशारा करती है। दक्षिण एशिया में शासन की गुणवत्ता अब केवल घरेलू मसला नहीं रही; यह भू-राजनीतिक स्थिरता का निर्णायक कारक बन चुकी है।
डोभाल के शब्दों में, भारत इस समय एक “ऑर्बिटल शिफ्ट”, यानी परंपरागत शासन ढांचों से एक नयी दिशा की ओर बढ़ रहा है। यह परिवर्तन केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि वैचारिक, सामाजिक और वैश्विक स्तर पर भारत की भूमिका को भी पुनर्परिभाषित कर रहा है। उन्होंने सरदार पटेल की उस दृष्टि का स्मरण कराया जिसके बल पर विविधता से भरे इस देश को एक संगठित राष्ट्र-राज्य में बदला गया था। आज, उसी दृष्टि को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि शासन केवल नौकरशाही का उपकरण न रहकर राष्ट्रीय सुरक्षा का कवच बन सके।
देखा जाये तो डोभाल का दृष्टिकोण महज़ सैद्धांतिक नहीं है; यह रणनीतिक अनुभव से उपजा है। एक सुरक्षा विशेषज्ञ के रूप में वे जानते हैं कि कमजोर शासन सबसे पहले संस्थानों को क्षीण करता है, फिर सामाजिक विश्वास को, और अंततः राष्ट्रीय सुरक्षा को। श्रीलंका का आर्थिक पतन, बांग्लादेश की अस्थिरता या नेपाल की बार-बार की राजनीतिक उठापटक, ये सभी उदाहरण बताते हैं कि जब शासन में स्पष्टता, निष्ठा और दीर्घदृष्टि का अभाव होता है, तो विदेशी प्रभाव, आंतरिक असंतोष और अस्थिरता साथ-साथ बढ़ते हैं।
भारत के लिए यह स्थिति केवल पड़ोस की समस्या नहीं, बल्कि सीमा-पार सुरक्षा चुनौती भी है। इन देशों में अस्थिरता से उत्पन्न शरणार्थी संकट, आतंकवाद के नए ठिकाने, और बाहरी शक्तियों (विशेषकर चीन) की बढ़ती पैठ, सीधे भारत की सामरिक गणना को प्रभावित करते हैं। डोभाल की टिप्पणी इस अर्थ में चेतावनी भी है कि भारत को अपने ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति में शासन-सुधार को एक केंद्रीय तत्व बनाना चाहिए।
साथ ही डोभाल का यह कहना कि “गवर्नेंस ही राष्ट्र को सुरक्षित और समृद्ध बनाता है”, वास्तव में आधुनिक राज्यकला का सार है। मजबूत शासन का अर्थ केवल कानून-व्यवस्था या प्रशासनिक दक्षता नहीं, बल्कि नीतिगत स्थिरता, संस्थागत विश्वसनीयता और नागरिक सहभागिता है — यही वह त्रिवेणी है जिससे कोई भी राष्ट्र वैश्विक मंच पर आत्मविश्वास के साथ खड़ा हो सकता है।
भारत आज जिस “ऑर्बिटल शिफ्ट” से गुजर रहा है— डिजिटल प्रशासन, नीति पारदर्शिता, रक्षा सुधार और अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व में वृद्धि, यह सब सुशासन के ही आयाम हैं। परंतु, इस परिवर्तन की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत अपने लोकतांत्रिक ढांचे में नीतिगत अनुशासन और संस्थागत मजबूती को कितना बनाए रख पाता है।
देखा जाये तो अजीत डोभाल के वक्तव्य को केवल प्रेरक भाषण के रूप में नहीं, बल्कि सामरिक नीति-संकेत के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। दक्षिण एशिया में शासन का संकट, भारत के लिए केवल कूटनीतिक नहीं बल्कि सुरक्षा-संबंधी चुनौती बन चुका है। भारत को, अपने पड़ोसी देशों के साथ सहयोग के नए मॉडल तैयार करते हुए, गवर्नेंस-सपोर्ट डिप्लोमेसी को बढ़ावा देना होगा— ताकि क्षेत्र में स्थायित्व और विकास का संतुलन बना रहे। सच तो यह है कि “सुशासन ही सबसे बड़ा सुरक्षा कवच” है और यह संदेश न केवल भारत के लिए, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप के लिए आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है।