कुआलालंपुर में 47वां आसियान शिखर सम्मेलन केवल दक्षिण-पूर्व एशिया की क्षेत्रीय बैठक भर नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे युग का संकेत है जहाँ बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट रूप से उभर रहा है। इस वर्ष की बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, चीनी प्रधानमंत्री ली च्यांग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित दुनिया के प्रमुख नेता या तो उपस्थित रहेंगे या वर्चुअल माध्यम से जुड़ेंगे। यह सम्मेलन अपने स्वरूप में जितना भौगोलिक है, उतना ही रणनीतिक भी क्योंकि इसमें एशिया-प्रशांत की सत्ता-समीकरणों का भविष्य दांव पर लगा है।
हम आपको बता दें कि 1967 में गठित आसियान (ASEAN) ने बीते पाँच दशकों में यह साबित किया है कि क्षेत्रीय सहयोग की भावना यदि निरंतरता और संतुलन के साथ चले तो वैश्विक स्तर पर भी राजनीतिक केंद्रबिंदु बन सकती है। अमेरिका और चीन जैसे महाशक्तियों के बीच व्यापारिक तनाव, दुर्लभ धातुओं (rare earths) पर प्रतिबंध और नए टैरिफ युद्ध के बीच आसियान का “तटस्थ” रुख उसे विश्व कूटनीति का एक स्थायी मंच बना रहा है। यही कारण है कि इस वर्ष का सम्मेलन “The World Comes to ASEAN” के प्रतीक वाक्य से पहचाना जा रहा है।
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आसियान देशों ने अपने आर्थिक ढांचे को “डिजिटल इकॉनॉमिक फ्रेमवर्क” और “आसियान पावर ग्रिड” जैसी परियोजनाओं के माध्यम से एकीकृत करने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं। यह न केवल ऊर्जा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में परस्पर निर्भरता बढ़ाने का संकेत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि एशिया अपने दम पर आत्मनिर्भर रणनीतिक क्षेत्र बनने की ओर अग्रसर है।
हम आपको बता दें कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उपस्थिति इस सम्मेलन का सबसे चर्चित पहलू है। ट्रंप की राजनीतिक शैली और आसियान की “सम्मति आधारित नीति” एक-दूसरे के विपरीत हैं। एकतरफ व्यक्तिगत नेतृत्व पर आधारित अमेरिकी आक्रामकता और दूसरी ओर सामूहिक सहमति की दक्षिण-पूर्व एशियाई परंपरा देखने लायक है। फिर भी, अमेरिका की उपस्थिति आसियान के लिए आवश्यक है, क्योंकि इससे संगठन की अंतरराष्ट्रीय प्रासंगिकता बनी रहती है।
दूसरी ओर, ट्रंप के लिए भी यह दौरा केवल एक औपचारिकता नहीं है; यह चीन को कूटनीतिक संदेश देने का अवसर है। दुर्लभ धातुओं पर प्रतिबंध, नए व्यापारिक नियंत्रण और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में प्रभाव संतुलन जैसे मुद्दे उनके एजेंडे के केंद्र में हैं। हालांकि, यह स्पष्ट है कि ट्रंप की नीति अभी भी “अमेरिका फर्स्ट” दृष्टिकोण से संचालित है, न कि क्षेत्रीय सहयोग की भावना से।
इस बार का सम्मेलन ऐतिहासिक भी है क्योंकि पूर्वी तिमोर (Timor-Leste) को आसियान की सदस्यता मिल रही है। यह उस क्षेत्रीय संरचना के विस्तार का संकेत है जो अब केवल आर्थिक या सामरिक मंच नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों का भी प्रतिनिधित्व करने लगा है। टिमोर-लेस्ते का प्रवेश विशेष रूप से म्यांमार जैसे मुद्दों पर संगठन की नैतिक स्थिति को मजबूत कर सकता है। हालांकि, उसके सैन्य शासन पर वर्तमान में नरम रुख यह भी दर्शाता है कि सदस्यता की कीमत कभी-कभी वैचारिक स्पष्टता से अधिक होती है।
साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मेलन में वर्चुअल रूप से जुड़ना भारत की “एक्ट ईस्ट नीति” के तहत निरंतरता का प्रतीक है। भारत और आसियान के बीच व्यापक सामरिक साझेदारी अब व्यापार, समुद्री सुरक्षा, डिजिटल सहयोग और आपदा प्रबंधन जैसे नए आयामों तक विस्तारित हो चुकी है। भारत के लिए आसियान केवल आर्थिक अवसर नहीं, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को सशक्त करने का माध्यम भी है। चीन की विस्तारवादी नीति और अमेरिका की अनिश्चितता के बीच आसियान-भारत सहयोग एक “संतुलनकारी शक्ति” के रूप में उभर सकता है।
मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से “सामने वाले को उसकी भाषा में जवाब” देने की नीति अपनाई है, उसने भारत को एक आत्मविश्वासी क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया है। ट्रंप या शी जिनपिंग जैसे नेताओं के साथ संवाद में भारत ने हमेशा कूटनीति के साथ दृढ़ता का प्रदर्शन किया है और यही दृष्टिकोण आसियान के मंच पर भी दिखाई देता है।
देखा जाये तो आसियान की यह बैठक मूलतः उस नई विश्व व्यवस्था की झलक है जिसमें पश्चिमी शक्तियाँ अब निर्णायक नहीं, बल्कि साझेदार की भूमिका में हैं। अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा ने दक्षिण-पूर्व एशिया को “वैश्विक आर्थिक हृदय” बना दिया है— एक ऐसा भूभाग जहाँ ऊर्जा, प्रौद्योगिकी, व्यापार और सुरक्षा की नीतियाँ एक-दूसरे से गुँथी हुई हैं। भारत के लिए यह अवसर है कि वह इस बहुध्रुवीय संरचना में “सहयोगी ध्रुव” बने जो न तो किसी खेमे का हिस्सा हो, न ही अलगाव का प्रतीक। कूटनीति की यही परिपक्वता भारत की वैश्विक पहचान को स्थायी बनाएगी।
आसियान शिखर सम्मेलन 2025 यह संदेश देता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अब संवाद, संयम और सहयोग ही वास्तविक शक्ति हैं। अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा के बीच आसियान यदि अपनी केंद्रीयता बनाए रख सका, तो यह न केवल क्षेत्रीय स्थिरता बल्कि विश्व शांति की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान होगा। भारत जैसे देशों के लिए यह मंच केवल रणनीतिक भागीदारी का अवसर नहीं, बल्कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” की उस भावना का विस्तार है जो हमारी कूटनीति की आत्मा रही है।
बहरहाल, आसियान का यह शिखर सम्मेलन एक ऐसे समय में हो रहा है जब विश्व राजनीति “ड्रैगन बनाम ईगल” की टकराहट से गहराई तक प्रभावित है। एक ओर चीन (ड्रैगन) अपनी आर्थिक शक्ति, व्यापारिक जाल और ‘रेयर अर्थ’ संसाधनों की नीति के ज़रिए वैश्विक प्रभाव बनाए रखना चाहता है, तो दूसरी ओर अमेरिका (ईगल) टैरिफ़, टेक नियंत्रण और कूटनीतिक दबावों के ज़रिए उस प्रभाव को सीमित करने की कोशिश कर रहा है। इन दोनों के बीच आसियान वह संतुलन बिंदु बनकर उभरा है जो संवाद, सहयोग और परस्पर हितों के माध्यम से बहुध्रुवीय विश्व की दिशा तय कर सकता है। भारत का इस मंच पर संयमित किंतु प्रभावी हस्तक्षेप न केवल उसकी “एक्ट ईस्ट नीति” की सफलता का प्रमाण है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि नई वैश्विक व्यवस्था में अब निर्णय सिर्फ़ शक्तिशाली देशों के नहीं, बल्कि समझदार साझेदारियों के हाथों में होंगे। यही आसियान की वास्तविक शक्ति है— और यही भारत की कूटनीति की जीत भी।
