लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी के लिए आपातकाल का अध्याय आज भी सबसे बड़ा नैतिक प्रश्नचिह्न बना हुआ है। न्यायमूर्ति शाह आयोग की रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि 1975-77 के बीच लगाए गए आपातकाल में नागरिक स्वतंत्रताओं को जिस तरह रौंदा गया, वह भारतीय लोकतंत्र पर एक गहरा धब्बा है। लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, न्यायमूर्ति जेसी शाह आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, आपातकाल के दौरान 1.07 करोड़ से अधिक लोगों की नसबंदी की गई, जो इंदिरा गांधी सरकार द्वारा तय लक्ष्य से 60% अधिक थी। यह आंकड़ा केवल संख्या नहीं है, बल्कि उस दौर की जबरन नीतियों और मानवीय त्रासदी का प्रतीक है। नागरिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित कर, भय और दमन के माहौल में “परिवार नियोजन” कार्यक्रम चलाया गया था।
विडंबना यह है कि वही कांग्रेस नेतृत्व, जो आज बार-बार संविधान की पुस्तक लहराकर लोकतंत्र की दुहाई देता है, उसी ने सत्ता में रहते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की सबसे कठोर अवहेलना की थी। शाह आयोग की यह रिपोर्ट कांग्रेस के दोहरेपन और अवसरवादी राजनीति की याद दिलाती है। इतिहास का यह पन्ना हमें चेतावनी देता है कि लोकतंत्र केवल संविधान की किताब दिखाने से नहीं बचता, बल्कि उसके मूल्यों का पालन हर परिस्थिति में करना पड़ता है। आपातकाल का यह काला अध्याय इस बात का प्रमाण है कि जब सत्ता संविधान से ऊपर उठने का प्रयास करती है, तो उसका परिणाम जनता के अधिकारों के दमन और विश्वासघात के रूप में सामने आता है।
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देखा जाये तो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आपातकाल (1975–77) एक ऐसा अध्याय है, जो आज भी तीखी बहस का विषय बना हुआ है। इस दौर में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगाने के साथ-साथ सबसे विवादास्पद कदम रहा था नसबंदी अभियान। शाह आयोग के अनुसार, 1975-76 में 24.8 लाख नसबंदी का लक्ष्य रखा गया था, पर वास्तविक संख्या 26.2 लाख रही। अगले ही वर्ष यानि 1976-77 में तो लक्ष्य (42.5 लाख) की तुलना में लगभग 91% अधिक यानी 81.3 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी। इस अभियान में 548 शिकायतें अविवाहित लोगों की जबरन नसबंदी से जुड़ी थीं, जबकि 1,774 मौतें नसबंदी प्रक्रियाओं से संबंधित दर्ज की गईं थीं।
हम आपको बता दें कि परिवार नियोजन कार्यक्रम मूलतः स्वैच्छिक स्वरूप में चलाया जा रहा था। लेकिन आपातकाल के दौरान इसका स्वरूप बदल गया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री करण सिंह ने इंदिरा गांधी को भेजे गए एक पत्र (अक्टूबर 1975) में लिखा था कि “राष्ट्रीय हित में थोड़े बहुत दबाव के तत्व” लागू किए जाने चाहिए और आपातकाल ने इसके लिए “उपयुक्त वातावरण” उपलब्ध कराया है। 22 जनवरी 1976 को स्वयं इंदिरा गांधी ने भी “जन्म दर को तेजी से घटाने” के लिए “कठोर कदम” उठाने की बात कही थी। परिणाम यह हुआ कि परिवार नियोजन बहुआयामी नीति न रहकर केवल नसबंदी तक सिमट गई। अन्य उपाय (जैसे गर्भनिरोधक साधनों का वितरण, जागरूकता अभियान आदि) पूरी तरह पिछड़ गए, जबकि नसबंदी में “लक्ष्य से 107% और 190%” की उपलब्धि दर्ज की गई।
रिपोर्ट के अनुसार, कुछ राज्यों ने तो केंद्र द्वारा तय लक्ष्यों से भी कहीं अधिक के आकड़े स्वयं तय कर लिए। उत्तर प्रदेश ने लक्ष्य 4 लाख से बढ़ाकर 15 लाख कर दिया, पर हासिल केवल 8.4 लाख हुए। महाराष्ट्र ने लक्ष्य 5.6 लाख से बढ़ाकर 12 लाख कर लिया पर उपलब्धि 8.3 लाख की रही। पश्चिम बंगाल ने लक्ष्य 3.9 लाख से बढ़ाकर 11 लाख कर लिया 8.8 लाख का लक्ष्य हासिल हुआ। यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि प्रशासनिक तंत्र में केवल “संख्या” पूरी करने की होड़ लगी हुई थी, भले ही इसके लिए नागरिक अधिकारों का दमन क्यों न करना पड़े।
हम आपको बता दें कि शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट (31 अगस्त 1978 को संसद में प्रस्तुत) में आपातकालीन नसबंदी अभियान को गंभीर “दुरुपयोग, अनियमितताओं और दुराचार” से ग्रस्त बताया था। इसने स्पष्ट किया कि परिवार नियोजन जैसे संवेदनशील कार्यक्रम को जबरन थोपने से सामाजिक असंतोष और मानवीय त्रासदी ही उत्पन्न होती है।
बहरहाल, आपातकाल के दौरान चला नसबंदी अभियान केवल जनसंख्या नियंत्रण का उपाय नहीं था, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नागरिक अधिकारों पर जबरन थोपे गए राज्यसत्ता के दमनकारी प्रयोग का प्रतीक भी था। आज जब भारत जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार कर रहा है, तो आपातकाल का यह कड़वा अनुभव हमें यह सिखाता है कि लोकतंत्र में नीतियां हमेशा सहमति और जागरूकता के आधार पर चलनी चाहिए, न कि दमन और भय के सहारे।