लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है— संवाद, विचार-विमर्श और बहस। संसद वह मंच है जहाँ जनप्रतिनिधि जनता के हितों पर चर्चा कर नीतियाँ बनाते हैं। लेकिन इस समय चल रहे संसद के मॉनसून सत्र में विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के नेताओं की रणनीति ने संसद के सुचारु संचालन पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं।
सोमवार को विपक्ष ने चुनाव आयोग के खिलाफ प्रदर्शन किया, जबकि आयोग पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि बिहार में एसआईआर (SIR) की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी ढंग से चल रही है। ऐसे में प्रदर्शन के पीछे वास्तविक उद्देश्य पर सवाल उठते हैं। और फिर उसी दिन रात में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा विपक्षी सांसदों को भोज देना यह संदेश देता है कि विरोध का स्वर अधिकतर राजनीतिक रंग में रंगा है, न कि पूरी तरह मुद्दा-आधारित।
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संसद के दोनों सदनों में बार-बार हंगामा, कार्यवाही बाधित करना और चर्चा को रोकना संसदीय परंपरा के विपरीत है। यह न केवल समय और संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि उस गंभीर विमर्श को भी रोक देता है जो विधेयकों और नीतियों के निर्माण के लिए आवश्यक है। जब विधेयक हंगामे के बीच बिना व्यापक बहस के पारित होते हैं, तो जनता की आवाज़ और विपक्ष की रचनात्मक भूमिका कमजोर होती है। साथ ही विधेयकों की गुणवत्ता और उनके दूरगामी प्रभावों पर गंभीर चर्चा नहीं हो पाती। इसके अलावा, सरकार पर जवाबदेही का दबाव घट जाता है, जिससे चेक एंड बैलेंस प्रणाली कमजोर होती है। साथ ही सांसदों को अपनी बात नहीं रख पाने के चलते उनके क्षेत्र की जनता का अहित भी होता है जोकि इस इंतजार में बैठी रहती है कि कब हमारे सांसद हमारे क्षेत्र की समस्या को संसद में उठायेंगे और उसका निदान कराएंगे।
देखा जाये तो लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका केवल विरोध करना नहीं, बल्कि रचनात्मक सुझाव देना और सरकार को बेहतर नीति निर्माण की ओर प्रेरित करना भी है। लेकिन यदि विरोध केवल राजनीतिक अंक जुटाने या मीडिया सुर्खियों तक सीमित हो जाए, तो यह विपक्ष की साख को ही नहीं, लोकतंत्र की नींव को भी कमजोर करता है। लगातार व्यवधान और राजनीतिक नाटकीयता इस मूलभूत ढाँचे को क्षति पहुँचाती है। जिसके चलते यह जनता में राजनीतिक संस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा कर सकता है और लोकतांत्रिक विमर्श को सतही बना सकता है।
देखा जाये तो विरोध और बहस लोकतंत्र की आत्मा हैं, लेकिन उनका उद्देश्य रचनात्मक होना चाहिए। दिन में प्रदर्शन, रात में भोज और संसद में गतिरोध जैसे कदम यह संकेत देते हैं कि राजनीति मुद्दों से हटकर अधिकतर दिखावे और टकराव की ओर झुक रही है। यह प्रवृत्ति अगर जारी रही तो न केवल विधायी कार्य प्रभावित होगा, बल्कि लोकतंत्र का वह सार भी कमजोर होगा जो जनता की भागीदारी और पारदर्शिता पर टिका है।