अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच होने वाली मुलाक़ात न केवल कूटनीतिक दृष्टि से अहम है, बल्कि इसके वैश्विक असर को लेकर भी अटकलें तेज़ हैं। इस बीच यूक्रेनी राष्ट्रपति का यह स्पष्ट बयान— “हम अपनी एक इंच जमीन भी नहीं छोड़ेंगे”, यह संकेत देता है कि शांति वार्ता की राह आसान नहीं होगी। वहीं पुतिन भी पीछे हटने के मूड में नहीं हैं, जिससे टकराव की संभावना बनी हुई है।
हम आपको यह भी बता दें कि ट्रंप वर्तमान समय में खुद को “शांति दूत” के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पीछे दो बड़े उद्देश्य हैं। पहला है- नोबेल शांति पुरस्कार की महत्वाकांक्षा। दरअसल ट्रंप रूस-यूक्रेन युद्ध को खत्म कराने का श्रेय लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को मज़बूत करना चाहते हैं। इसके अलावा अमेरिकी चुनावी राजनीति में दबदबा बढ़ाना उनका दूसरा उद्देश्य है। दरअसल वह घरेलू मोर्चे पर यह दिखाना चाहते हैं कि वह वैश्विक संकटों को सुलझाने में सक्षम हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध का शांतिपूर्ण अंत उनके लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि बन सकता है।
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अब सवाल उठता है कि यदि पुतिन ने ट्रंप की बात मानने से इंकार किया तब क्या होगा? देखा जाये तो अगर पुतिन ट्रंप के प्रस्तावों को ठुकराते हैं, तो ट्रंप का गुस्सा और रणनीतिक प्रतिक्रिया कई रूप ले सकती हैं जैसे- रूस के खिलाफ नए और कठोर प्रतिबंध लागू हो सकते हैं विशेष रूप से बैंकिंग, ऊर्जा निर्यात और रक्षा क्षेत्र में। इसके अलावा, यूक्रेन को उन्नत हथियार, इंटेलिजेंस और ड्रोन तकनीक मुहैया कराई जा सकती है। साथ ही रूस को वैश्विक मंचों पर अलग-थलग करने के लिए यूरोपीय संघ, G7 और NATO देशों को और मजबूती से जोड़ा जा सकता है। इसके अलावा, रूस को समर्थन देने वाले देशों— खासकर भारत, ईरान, उत्तर कोरिया और चीन पर भी अधिक आर्थिक/वित्तीय दबाव डाला जा सकता है।
अगर रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म नहीं होता तो ट्रंप के संभावित सख्त कदमों के दूरगामी नतीजे हो सकते हैं। जैसे तेल और गैस के दाम में उछाल आ सकता है जिससे पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ेगी वहीं NATO सीमा पर सैनिक तैनाती बढ़ सकती है। इसके अलावा, रूस समर्थक देशों के बीच सामरिक सहयोग और गहरा हो सकता है।
साथ ही पुतिन के संभावित जवाब की बात करें तो माना जा सकता है कि यदि ट्रंप दबाव बढ़ाते हैं, तो पुतिन भी ऊर्जा आपूर्ति, साइबर हमलों या एशियाई गठबंधनों के जरिये अमेरिका और उसके सहयोगियों पर पलटवार कर सकते हैं। इसके अलावा, वह यूक्रेन में सैन्य मोर्चा और आक्रामक बना सकते हैं ताकि बातचीत की शर्तें अपने पक्ष में तय करें। लेकिन यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या पुतिन इस युद्ध समाप्त करने को तैयार होंगे, और यदि हां, तो किन शर्तों पर? साथ ही, क्या अमेरिका इन शर्तों को स्वीकार करेगा?
देखा जाये तो पुतिन के लिए युद्ध केवल सैन्य टकराव नहीं, बल्कि रूस की सुरक्षा, भू-राजनीतिक प्रभाव और ऐतिहासिक दावेदारी का मामला है। उनकी रणनीति इस धारणा पर टिकी है कि पश्चिमी दबाव के बावजूद रूस अपने हितों से पीछे नहीं हटेगा। पुतिन का उद्देश्य सिर्फ युद्धविराम नहीं, बल्कि एक ऐसा समझौता है जो रूस के दीर्घकालिक हितों को सुनिश्चित करे। पुतिन युद्ध समाप्ति के लिए जो संभावित शर्तें रखेंगे उनमें माना जा रहा है कि रूस द्वारा कब्ज़ा किए गए क्षेत्रों (डोनेट्स्क, लुहान्स्क, ज़ापोरिज़्ज़िया, खेरसॉन) पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी संप्रभुता को मान्यता मिले। इसके अलावा, क्रीमिया पर 2014 के अधिग्रहण को भी मान्यता देने की मांग हो सकती है। यह भी शर्त रखी जा सकती है कि यूक्रेन की तटस्थ स्थिति बनी रहे। यूक्रेन को NATO में शामिल नहीं किया जाये और दीर्घकालिक सैन्य तटस्थता बनाए रखी जाये। साथ ही यह भी शर्त हो सकती है कि पश्चिमी देशों से यूक्रेन को भारी हथियारों की आपूर्ति पर स्थायी प्रतिबंध लगे। रूस अपने खिलाफ लगे प्रतिबंधों में ढील की मांग भी रख सकता है। इसके तहत अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा रूस पर लगाए गए आर्थिक और वित्तीय प्रतिबंधों को हटाना या कम करना शामिल होगा। इसके अलावा, यूक्रेन में रूसी भाषी आबादी के लिए विशेष संवैधानिक सुरक्षा और स्वायत्तता की मांग की जा सकती है।
अब सवाल उठता है कि क्या अमेरिका इन शर्तों को मानेगा? देखा जाये तो अमेरिका के सामने दोहरी चुनौती होगी। एक तो उस पर सहयोगी देशों का दबाव होगा। यूरोपीय संघ, विशेषकर पूर्वी यूरोप के देश, किसी भी ऐसे समझौते के खिलाफ होंगे जो रूस को कब्ज़े वाले क्षेत्रों पर स्थायी नियंत्रण दे। इसके अलावा, अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य में रूस के प्रति “कड़ा रुख” दिखाना ट्रंप के लिए जरूरी होगा, खासकर चुनावी वर्ष में। संभावना है कि अमेरिका कुछ शर्तों को आंशिक रूप से मान सकता है। जैसे- यूक्रेन की NATO सदस्यता पर अस्थायी रोक (लेकिन स्थायी प्रतिबंध पर सहमति मुश्किल)। इसके अलावा, कुछ आर्थिक प्रतिबंधों में ढील (लेकिन तेल-गैस और बैंकिंग प्रतिबंध बरकरार)।
अब सवाल उठता है कि समझौता नहीं होता है तब क्या होगा? मसलन अगर पुतिन की शर्तें अमेरिका के लिए अस्वीकार्य साबित होती हैं, तो वार्ता विफल हो सकती है। इसके नतीजतन यूक्रेन में युद्ध की तीव्रता बढ़ सकती है। अमेरिका द्वारा यूक्रेन को और उन्नत हथियार व वित्तीय मदद दी जा सकती है। रूस का चीन, ईरान और अन्य पश्चिम-विरोधी देशों के साथ गठबंधन गहरा हो सकता है।
बहरहाल, ट्रंप के लिए पुतिन से यह मुलाकात एक कूटनीतिक अवसर है, लेकिन अगर पुतिन अड़ जाते हैं, तो यह शांति पहल जल्दी ही शक्ति प्रदर्शन की जंग में बदल सकती है। इस टकराव के बीच यूक्रेन का रुख सबसे कठिन है— न तो वह जमीन छोड़ने को तैयार है और न ही लंबे युद्ध से पीछे हटने को। आने वाले समय में यह वार्ता सिर्फ यूक्रेन के भविष्य को नहीं, बल्कि अमेरिका-रूस संबंधों और वैश्विक शक्ति संतुलन को भी प्रभावित करेगी। यह भी सत्य है कि यह वार्ता तभी सफल होगी जब दोनों पक्ष “पूर्ण जीत” की बजाय व्यावहारिक समझौते पर तैयार हों। पुतिन के लिए युद्ध समाप्ति का मतलब सम्मानजनक और रणनीतिक लाभकारी शर्तें होंगी, जबकि अमेरिका के लिए यह अपने सहयोगियों को संतुष्ट करते हुए शांति का रास्ता निकालना होगा। अगर यह संतुलन नहीं बन पाया, तो यह बैठक सिर्फ एक कूटनीतिक फोटो-ऑप बनकर रह जाएगी।
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
