देश के सरकारी स्कूलों के आधारभूत ढांचे और शिक्षा की गुणवत्ता की हालत करेला और नीम चढ़ा जैसी है। हालात ये हैं घिसी-पिटी, आधी-अधूरी शिक्षा ग्रहण करने वाले इन स्कूलों में बच्चों की जान तक महफूज नहीं है। राजस्थान के झालावाड़ जिले के मनोहरथाना ब्लॉक के पलोदी गांव में सरकारी मिडिल स्कूल की छत गिरने से 7 बच्चों की मौत हो गई। इस हादसे में करीब 30 से ज्यादा बच्चे घायल हो गए। राज्य के सैकड़ों स्कूलों के संस्था प्रधान पिछले दो साल से विभाग से भवनों की मरम्मत के लिए बजट मांगते-मांगते थक गए, लेकिन सरकारी तंत्र पर कोई असर नहीं हुआ।
राजस्थान के शिक्षा विभाग ने हाल ही आठ हजार स्कूलों का प्रस्ताव स्कूल शिक्षा परिषद को भेजा। इनमें से महज दो हजार स्कूलों का चयन कर इनमें मरम्मत के लिए 175 करोड़ प्रस्ताव बनाकर सरकार को भेज दिया, लेकिन राशि अभी तक नहीं मिली। इस बार केंद्र से सिर्फ नवीन भवनों का बजट मिला। इसके चलते सरकार ने पिछले बजट में 700 स्कूलों की मरम्मत की घोषणा की। इसके लिए 80 करोड़ जारी हो गए, जिनका कार्य चल रहा है। वहीं, हाल ही बजट में 175 करोड़ स्वीकृत किए गए। लेकिन बजट कम होने के कारण दो हजार स्कूलों को शामिल किया गया। करीब छह हजार स्कूल मरम्मत का इंतजार कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अकेले राजस्थान में ही सरकारी स्कूलों के भवनों की ऐसी दुर्दशा है। देश में 54 हजार से अधिक सरकारी स्कूल जर्जर हालत में हैं। इन स्कूलों में लाखों बच्चे जान जोखिम में डालकर पढ़ाई कर रहे हैं। ओडिशा में 12 हजार 343, महाराष्ट्र में 8 हजार 71, पश्चिम बंगाल में 4 हजार 269, गुजरात में 3 हजार 857, आंध्र प्रदेश में 2 हजार 789, मध्य प्रदेश में 2 हजार 659, उत्तर प्रदेश में 2 हजार 238 और राजस्थान में 2 हजार 061 स्कूल जर्जर हालत में हैं। इनमें कभी भी झालावाड़ जैसे हादसे की पुनरावृत्ति हो सकती है। राजस्थान में हुए स्कूली हादसे की पुनरावृत्ति देश के कई राज्यों में पूर्व में हो चुकी है। भोपाल के एक स्कूल में छत से प्लास्टर गिरने से छात्राएं घायल हो गईं। झारखंड की राजधानी रांची में एक स्कूल की इमारत की खिड़की का एक हिस्सा टूटकर गिरा था। उत्तर प्रदेश में भी स्कूलों की दीवारों में दरारें हैं और ऑपरेशन कायाकल्प का असर नहीं दिख रहा। बिहार में कई बच्चों के पास स्कूल की इमारत तक नहीं है और वे झोपडिय़ों में पढ़ते हैं, जहाँ पीने का पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। मध्य प्रदेश के सतना में भी प्लास्टर गिरने से एक बच्चा घायल हुआ था।
सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं के साथ शिक्षा की गुणवत्ता भी खराब है। यूडाइस की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री पोषण योजना की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल सरकारी स्कूलों में डेढ़ करोड़ बच्चे कम हुए और इस साल तो मामला और गंभीर हुआ है। 23 राज्यों में बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिया है। इनमें से राजस्थान सहित 8 राज्य ऐसे हैं जहाँ ये घटत, एक लाख से ज़्यादा की है। अर्थात लाखों बच्चों ने स्कूल छोड़ा। इनमें उत्तर प्रदेश में (21.83 लाख), बिहार (6.14 लाख), राजस्थान (5.63 लाख) और पश्चिम बंगाल (4.01 लाख) और कर्नाटक (2.15 लाख) बच्चों ने स्कूलों से मुंह मोड़ लिया। असम, तमिलनाडु, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और गुजरात की हालत भी यही है। साल 2024-25 के इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक भारत में 14.72 लाख स्कूल हैं, जिनमें 24.8 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं और 98 लाख शिक्षक हैं। अब 57.2 प्रतिशत स्कूलों में कंप्यूटर हैं, 53 प्रतिशत में इंटरनेट है। प्राथमिक कक्षाओं से 1.9 प्रतिशत, उच्च प्राथमिक से 5.2 प्रतिशत और सेकेंडरी लेवल से 14.1 प्रतिशत बच्चे हर साल पढ़ाई छोड़ रहे हैं। ये सर्वे, पहले के मुक़ाबले स्कूलों की बेहतरी दिखा रहे थे। मगर हाल में नजऱ आ रही गिरावट ने ये सारी बात उलट दी। भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति काफी खराब है। शोध अध्ययनों से पता चला है कि छात्रों की अनुपस्थिति दर बहुत अधिक है और उसकी तुलना में आधे से भी कम शिक्षक वास्तव में पढ़ा रहे थे।
वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 5 के छात्र कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ सकते हैं या साधारण गणितीय प्रश्न हल नहीं कर सकते हैं। केंद्र और राज्य सरकार ने पिछले दो दशकों में शिक्षा में अधिक धन लगाया है, लेकिन अधिक व्यय, उच्च शिक्षक-छात्र अनुपात, पाठ्यक्रम परिवर्तन और एनजीओ के प्रयासों के बावजूद, पिछले दशक में एएसईआर के परिणामों में महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ है। वर्ष 2009 में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम स्कूल रैंकिंग में भाग लिया। इस मूल्यांकन से पता चलता है कि 15 वर्षीय स्कूली बच्चे विज्ञान-गणित और पढऩे में कैसा प्रदर्शन करते हैं। भारत 74 देशों में से 72वें स्थान पर रहा, जो इसकी शिक्षा प्रणाली का प्रतीक है।
भारत ने इसके बाद इस कार्यक्रम में भाग लेना बंद कर दिया। हालांकि 2021 में प्रतियोगिताओं में भारत ने फिर से भाग लेने का निर्णय लिया, लेकिन उसी बीच कोरोना की लहर आ गई और आगे कुछ नहीं हुआ। भारत के कुछ प्रतिष्ठित निजी स्कूलों में लंबे समय से गुणवत्ता स्थापित है। अधिकांश राज्य सरकार के स्कूलों के साथ ऐसा नहीं है। ये इतनी खराब गुणवत्ता के हैं कि कई गरीब परिवार अपने बच्चों को मुफ्त सरकारी स्कूलों से निकालकर महंगे निजी स्कूलों में डाल देते हैं, भले ही इनकी अक्सर संदिग्ध साख हो। केंद्रीय विद्यालय अच्छी शिक्षा प्रदान करते हैं, क्योंकि माता-पिता प्रभावशाली सिविल सेवक होते हैं जो शिक्षकों की माता-पिता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।
सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए समय-समय पर कई आयोग और समितियों का गठन किया गया है, जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। इन आयोगों और समितियों में कोठारी आयोग, यशपाल समिति, और टीएसआर सुब्रमण्यम समिति प्रमुख हैं। इनकी सिफारिशों में शिक्षा के सभी स्तरों पर सुधार, शिक्षकों की भूमिका, पाठ्यक्रम और मूल्यांकन में बदलाव और शिक्षा में नवाचार शामिल हैं। इन आयोगों की रिपोर्ट धूल फांक रही है। कारण स्पष्ट है कि सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए शिक्षा में सुधार से वोट बैंक में इजाफा नहीं होता। जब तक देश में शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को वोट बैंक के नजरिए से देखा जाता रहेगा, तब तक देश में शिक्षा का सर्वांगीण उत्थान संभव नहीं है।
– योगेन्द्र योगी