व्यक्त्ति-विशेषसिद्धभूमि VICHAR

देव भूमि उत्तराखंड में तीर्थ यात्रा के कारण पर्यावरण पर खतरा

पर्यावरण व प्रकृति का सम्मान करते हुए भी हम इकॉसिस्टम को बचाने का कोई ना कोई मध्यमार्ग जरूर निकल सकते है हमें बस कोशिश करने की जरूरत है।

करीब 5 करोड़ वर्ष पहले जब यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट से भारतीय प्लेट आकर टकराई तो हिमालय का उभार प्रारंभ हुआ उस समय विश्व से डायनासोरों की प्रजाति खत्म होने की कगार पर थी उसके बाद करोड़ों वर्षों के जैविक विकास एवं भौगोलिक परिवर्तनों के फलस्वरुप मानव सभ्यता का उद्भव हुआ और पामीर के पठार, हिमालय व हिंदुकुश पर्वत श्रृंखलाएं बनती चली गई भारतीय प्लेट आज भी 5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से यूरेशियन प्लेट को उत्तर की ओर धकेल रही है फलस्वरुप हिमालय लगातार ऊंचा होता जा रहा है इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है अत: कह सकते हैं कि हिमालय विश्व की सबसे अस्थिर पर्वत श्रंखला है इसी कारण हिमालय विश्व में सर्वाधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र बन जाता है भूगर्भीय दबाव व पर्यावरणीय परिवर्तन स्थिर नहीं होते लगातार चलते रहते हैं सवाल यह है कि क्या विकास, शहरीकरण, विकास संबंधी कार्य बांध सड़क व सुरंग निर्माण इस हिमालय संकट के कारण है? इसका कोई सीधा उत्तर दिया जाना संभव नहीं है क्या आप जानते है 1993 में उत्तरकाशी में आया 6.6 रिएक्टर स्केल का भूकंप जिसने बड़े पैमाने पर धन जन व पर्यावरण को क्षति पहुंचाई थी उसमें कितना हिस्सा टेक्टोनिक प्लेट के तनाव की ऊर्जा का है और कितना अनियंत्रित नगरीकरण व इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास का |

जोशीमठ यदि बिना आबादी का वनक्षेत्र ही होता तो क्या य़ह धंसान जो जियोलॉजिकल कारणों से हो रहा है ना हुआ होता? यह कहना संभव नहीं है भूगर्भ परिवर्तन की उर्जा बहुत व्यापक है उस पर मानवीय नियंत्रण असंभव है हमें परिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप अपनी जीवन पद्धति को समायोजित करना चाहिए नाकि अतिक्रमण करके। दरअसल जो महत्वपूर्ण है वह है हमारा आपदा प्रबंधन जो अत्यंत उच्च कोटि का विश्व स्तरीय होना चाहिए खतरे का सही आकलन, चेतावनी का प्रेषण, आबादी की आपात निकास व्यवस्थाएं न की गई तो जनधन की क्षति से बचना बहुत मुश्किल है। हमनें उत्तरकाशी भूकंप त्रासदी के समय देखा था कि जो मकान पत्थर लकड़ी की पुरानी पद्धतियों से बने थे, उनकी क्षति कंक्रीट- सरिया से बने मकानों की तुलना में कम थी l पहाड़ों के गांव में मकान हजारों वर्ष के पर्यावरण अनुभवों के अनुसार विकसित हुए हैं बिना पर्वतीय ढलान का सहारा लिए आयतित डिजाइनों पर खड़े कर दिए गए मकान पर्यावरण कि आपदाओं को झेल नहीं पाते प्रायः यही संकट का कारण बनते हैं ।
पर्वतों के वनीकरण का खात्मा ओर इकॉसिस्टम के संकट का एक बड़ा कारण है देव भूमि में तीर्थ यात्रियों को सुविधाएं देने के नाम पर बड़े पैमाने पर होटलों, गेस्ट हाउस ओर नागरिक सुविधाओं का विकास होना।
नदियों के किनारों की मालिकरहित जमीनों पर 5 से 8 मंजिला मंदिरों ओर होटलो का निर्माण होता है जिनमे से कई तो डेवलपमेंट अथॉरिटी से मिली निर्माण अनुमति का उलंघन भी करते है लेकिन फिर भी प्रशासन इनके खिलाफ कोई करवाई नहीं करता। यह निर्माण पर्वतों के सीमित संसाधनों पर भार बने हुए है ओर भविष्य की त्रासदियों को आमंत्रण दे रहे हैं।

इन समस्याओ के बचाव की यदी हम बात करे तो इसका एक उपाय यह हो सकता है की जहां आबादी का दबाव पर्यावरण सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है वहां दीर्घकालीन योजनाएं अमल में लाई जा सकती हैं वन एवं राजस्व विभाग एक संयुक्त रणनीति पर कार्य कर सकते हैं जिन गांवों में पेयजल, बिजली, सड़क जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने में समस्याएं हो रही है उनकी आबादी को तलहटियों की राजस्व भूमि पर लैंड एक्सचेंज नीति के तहत स्थान्तरित किया जा सकता है एक पहाड़ पर एक गाव जितनी जमीन पर बसता है समतल इलाकों मे वही गाव उस से काफी कम जमीन मे उससे कई अधिक सुविधाजनक रूप से गुजारा कर सकता है इस तरह पर्वतीय आबादी के वे बहुत से गांव जिनके भविष्य में पर्यावरणय संकट में फंस जाने की आशंका है सुरक्षित दूसरी जगह बसाये जा सकेंगे वन विभाग के स्वाभाविक वनीकरण के लिए इकॉसिस्टम के अनुरुप वन क्षेत्र को बढ़ाने के लक्ष्य की भी पूर्ति हो सकेगी हमारा संकट अस्थिर क्षेत्रों में हुए अनियंत्रित बसाहट को लेकर है

पर्यावरण व प्रकृति का सम्मान करते हुए भी हम इकॉसिस्टम को बचाने का कोई ना कोई मध्यमार्ग जरूर निकल सकते है हमें बस कोशिश करने की जरूरत है।

By – Adarsh Kumar Yadav (Cub Reporter)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button