अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी की भी मजाक उड़ाना या उपहास का पात्र बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। पिछले कुछ सालों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग आम होता जा रहा है। यहां तक कि स्वतंत्रता के नाम पर समाज में वैमनस्य बढ़ाना, वर्ग विशेष के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी करना, धार्मिक भावनाओं को आहत करना इन उपहास कर्ताओं के लिए तो सामान्य होता जा रहा है तो राजनीतिक व सोशल एक्टिविस्ट भी इसमें पीछे नहीं है। ऐसे में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश महत्वपूर्ण हो जाते हैं। माननीय न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जोयमाल्या बागची की सरकार को गाइड लाईन जारी कर सीमाओं में बांधने और इस तरह के इन्फ्लूएंसरों के खिलाफ सख्त टिप्पणी व उसी स्तर की सार्वजनिक माफी मांगने के निर्देश आवश्यक हो गए थे। हालांकि यह आदेश स्पाइनल मस्कुलर एट्रोपी एसएमए से पीड़ित व्यक्तियों का समय रैना व अन्य द्वारा उपहास उ़ड़ाने से संबंधित प्रकरण में दिए गए हैं। आदेश में दिव्यांगों का उपहास करने को गंभीरता से लिया गया है और साफ निर्देश दिए गए हैं कि जिस स्तर पर उपहास उड़ाया गया ठीक उसी स्तर पर माफी भी मांगी जाए। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि माफी की औपचारिकता से काम नहीं चलने वाला है।
व्यूअरशिप, फोलोवर्स या व्यूज बढ़ाने के लिए जिस तरह से सोशल मीडिया या यों कहे कि इंटरनेटी संसाधनों का उपयोग करते हुए किसी को भी उपहास का पात्र बनाना आम होता जा रहा है, उस पर लगाम की आवश्यकता लंबे समय से चली आ रही थी और ऐसे में देश में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति द्वय जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जोयमाल्या बागची द्वारा की गई टिप्पणी ऐसे तत्वों और सरकार दोनों के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। दरअसल फूहड हास्य कार्यक्रमों और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर प्रस्तुत सामग्री में मीडिया इन्फ्लूएंसरों द्वारा लोगों का बैखोफ उपहास उड़ाया जाना आम होता जा रहा है। ऐसे लोग अपने आपको समाज के विशिष्ट व्यक्ति बनने और दिखाने का प्रयास करते हैं। दावा करते है कि उनके इतने फोलोवर्स है या इतने व्यूअर्स है। पर सवाल यह उठता है कि किसी की मजाक उडाने या उपहास करने का अधिकारी आपको कौन देता है। हेट स्पीच और उसको सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित करने के दुष्परिणाम सामने हैं। छोटी सी टिप्पणी कभी कभी तो असामाजिक तत्वों के लिए अच्छा अवसर बन जाती है और कानून व्यवस्था को प्रभावित करने तक की सीमा तक पहुंच जाती है। मजे की बात यह है कि हेट स्पीच या ऐसी टिप्पणी करने वालों पर कार्रवाई होते ही तथाकथित वुद्धिजीवियों की टीम सक्रिय हो जाती है।
यह तथाकथित कोमेडियन और सोशल इन्फ्लूएंसर अपनी टिप्पणियों की बदौलत व्यूअरशिप बढ़ाते हैं और अनाप शनाप पैसा कमाते हैं, अपनी जेब भरते है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे गंभीरता से लिया है और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत टिप्पणी नहीं मानते हुए व्यावसायिक गतिविधि करार दिया है। वैसे भी सामान्य नैतिकता का सवाल भी यह उठता है कि आपकों किसी अन्य की विकलांगता या अन्य टिप्पणी को अधिकार कैसे मिल सकता है। कैसे आप किसी को उपहास का पात्र बना सकते हैं तो कैसे आप अनर्गल टिप्पणी कर सकते हैं। हालांकि आजकल हेट स्पीच को लेकर तो न्यायालयों में जाने का चलन बढ़ा है और यह जरुरी भी हो जाता है। सोशल मीडिया के नाम पर आप किसी की निजता पर कीचड़ नहीं उछाल सकते हैं।
यह निर्णय इस मायने में अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि कामेडियन्स या इन्फ्लूएंसर्स द्वारा जिस तरह से इस तरह की गतिविधियां आम होती जा रही है उस पर सख्त लगाम कसना जरुरी हो जाता है। यदि इसी मामलें को देखा जाए तो एक तो ऐसे व्यक्तियों के साथ वैसे ही अन्याय हुआ है और फिर उस शारीरिक विकलांगता का मजाक उड़ाना या निशाना बनाना कहां की नेतिकता हो सकती है। इसके अलावा इंस्ट्राग्राम, वाट्सएप इसी तरह के सोशल मीडिया साइट पर अनर्गल टिप्पणियां या किसी घटना विशेष पर इस तरह की प्रतिक्रिया देकर तनाव के हालात पैदा कर देना या इसी तरह के हालात पैदा करने से आपका शौक तो पूरा हो जाता है पर उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफार्म को सीमाओं में बांधना जरुरी हो जाता है। शहरों में आए दिन दंगे तनाव के हालात बनना आम होता जा रहा है। न्यायालय की टिप्पणी के मध्येनजर सोशल मीडिया प्लेटफार्म संचालकों को भी इस तरह की टिप्पणियों या सामग्री को फिल्टर करने आगे आना चाहिए। अभी तो होता यह है कि चाहे किसी भी तरह की रील हो यदि उसकी व्यूअरशिप ठीक आ जाती है तो कमाई का माध्यम बन जाती है जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे इन्फ्लूएंसरों पर सख्ती होने के साथ ही साथ इस तरह की टिप्पणी या रील उसी व्यक्ति द्वारा करने पर ऐसे अकांउट को ब्लेक लिस्ट करते हुए ब्लॉक कर दिया जाना चाहिए।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपना काम कर दिया है। देर सबेर सरकार भी गाइडलाइन जारी कर देगी। हो सकता है सख्त प्रावधान भी कर दे पर समस्या का समाधान आसानी से होता लगता नहीं हैं। ऐसे में आम आदमी को भी आगे आना होगा तो गैर सरकारी संगठनों, सामाजिक संगठनओं और खासतौर से तथाकथित वुद्धिजीवियों को सकारात्मक सोच के साथ आगे आना होगा तभी कामेडियनों और सोशल इन्फ्लूएंसरों पर प्रभावी रोक संभव हो सकेगी।
– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा