राजनीति

गुटनिरपेक्षता से गुट सापेक्षता की तरफ बढ़ते भारत के कदम

ईश्वर चंद्र तिवारी

1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात अनेक देशों ने यह महसूस किया उन्हें अपने हित के लिए साम्राज्यवादी ताकतों से दूर रहना चाहिए इसलिए उन्होंने उस दौर की महाशक्तियों से अपनी दूरी बनाकर रखी। 1945 के बाद उपनिवेशी ताकतों से स्वतंत्र होने वाले अनेक देशों के प्रमुखों ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाने का निश्चय किया और 1961 मैं बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष संगठन का गठन हुआ। इस संगठन में भारत, मिश्र, इंडोनेशिया, घाना, युगोस्लाविया इत्यादि देश शामिल हुए। गुटनिरपेक्ष संगठन का मुख्यालय जकार्ता में है। गुटनिरपेक्ष नीति के अंतर्गत कोई भी देश किसी शक्ति के नियंत्रण में अपनी संप्रभुता से समझौता नहीं करेगा और विश्व की शक्तियों की जो धूरियां बनी है उनमें शामिल नहीं होगा। तत्कालीन परिस्थितियों में उन देशों को यह लगा कि यदि वह किसी गुट में शामिल होते हैं तो कोई भी युद्ध होगा तो उनको भी उसमें शामिल होना होगा तथा उनका भी विनाश होना तय है। गुटनिरपेक्ष संगठन के सदस्य देशों को यह भी लग रहा था कि बड़े राष्ट्र उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं तथा उनका उचित मूल्य उनको कभी नहीं मिल पाता। अतः उन पर अपना प्रभाव डालने के लिए उन गुटों से अलग जाकर गुटनिरपेक्षता का संगठन बनाने का फैसला किया। हालांकि भारत ने यह समझा था कि गुटनिरपेक्षता की नीति से उसे फायदा होगा लेकिन अगले ही साल उसे उस समय गलती का एहसास हुआ जब चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया और भारत को मदद करने वाला कोई देश सामने नहीं आया। जबकि गुटनिरपेक्ष संगठन में उस समय अनेक देश थे।। 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत का अकेले रहना यह साबित कर दिया कि गुटनिरपेक्ष देशों का संगठन उसी प्रकार है जिस प्रकार बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए अनेक चूहे मिलकर संगठन बनाते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गुटनिरपेक्ष संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे तथा गुटनिरपेक्ष संगठन बनने के बाद वह मात्र 2 वर्ष जीवित रहे और इस संगठन की प्रासंगिकता के संदर्भ में कुछ नहीं कर पाए। हालांकि भारत की रूस और कुछ अन्य देशों से अच्छे संबंध थे लेकिन वे संबंध इतने मजबूत नहीं थे कि किसी भी विषम परिस्थिति में रूस या अन्य देश सहायता के लिए तत्पर रहें। कांग्रेस ने सदैव गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया प्रधानमंत्री भले ही बदले लेकिन उनकी विदेश नीति में इतना परिवर्तन नहीं हो पाया जो अपने आप को किसी मजबूत संगठन के साथ जोड़ सकें तथा विषम परिस्थिति में देश के पास एक मजबूत रक्षा कवच तैयार हो सके। जब पहली बार अटल बिहारी बाजपेई भारत के प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने अमेरिका से अपने संबंधों को बढ़ाने पर जोर दिया। साथ ही अनेक बार विदेश का दौरा करके अनेक देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने का काम किया। 2004 में जब यूपीए ने केंद्र में अपना सरकार बनाया तब उसने अपना ध्यान अमेरिका के तरफ देना प्रारंभ किया। अमेरिका के साथ यूपीए सरकार जो परमाणु संधि करने जा रही थी उसका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी ने यूपीए से अपना समर्थन खींच लिया और ऐसा लगा कि सरकार गिरने वाली है उस परिस्थिति में सपा ने बाहर से समर्थन देकर यूपीए सरकार को बचाने का काम किया। 2014 में जब भाजपा फिर से केंद्र में सत्ता पर आई तो भाजपा का ध्यान देश को विदेशी मोर्चे पर मजबूत करने पर था। अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक देशों का दौरा किया। ये दौरे इतने ज्यादा थे कि विपक्षी पार्टियां भी इन दौरों पर प्रश्न चिन्ह खड़ी करने लगी। वस्तुतः भारतीय जनता पार्टी को यह लग रहा था कि जब तक हम विदेशी मोर्चे पर मजबूत नहीं होंगे और मजबूत देशों से हमारे घनिष्ठ संबंध नहीं होंगे तब तक हम आर्थिक और सैन्य स्तर पर मजबूत नहीं होंगे। इसीलिए भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, जापान, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इजरायल रूस आदि देशों को अपने पक्ष में लाने के लिए विशेष प्रयास किया। हम सभी जानते हैं कि एकता में शक्ति होती है। जब हम एकजुट होकर कोई काम करते हैं तो उसका फल अवश्य मिलता है तथा कोई अन्य शक्ति आंख नहीं दिखा सकती। पुरानी अनेक कहानियां है जो यह बताती हैं जब हम एकता के बंधन में मजबूती से बने रहते हैं तो हम भी मजबूत रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति के संदर्भ में यह बदलाव किया की गुटनिरपेक्षता के विपरीत गुट सापेक्षता को अपनाना शुरू किया और इस तरह से मजबूत राष्ट्रों का गुट बनाना शुरू किया जिससे कि देश की सुरक्षा मजबूत हो सके। चीन के विस्तार वादी नीति को को चुनौती देने के लिए भारत ने चार मजबूत देशों का एक संगठन क्वाड का एक महत्वपूर्ण सदस्य देश है। क्वाड जिसका गठन दक्षिण चीन सागर में चीन की महत्वाकांक्षा को रोकने तथा उसके विस्तारवाद को रोकने के लिए किया गया है। उसके सदस्य देश भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा जापान हैं। यह संगठन ऐसा सशक्त संगठन है एक दूसरे देश को सैन्य मदद देने के लिए कृत संकल्पित है।भारत अपने विदेश नीति के मोर्चे पर बदलाव करते हुए इजरायल के साथ अपने संबंधों को मजबूत किया है। इजरायल एक ऐसा देश है जो आतंकवाद को लेकर वैसे ही जूझ रहा है जिस प्रकार भारत जूझ रहा है । इन परिस्थितियों में जबकि दोनों देश एक समान समस्या से जूझ रहे हैं दोनों का मित्रवत होना लाजमी है। आज स्थिति यह है कि भारत विराल के संबंध अपने चरम पर हैं इजराइल तकनीक के दृष्टि से एक महत्वपूर्ण देश है जो भारत को अपनी अन्य अनेक तकनीक साझा कर चुका है तथा अनेक सुरक्षा संबंधी साजो सामान कम मूल्य पर देता रहा है तथा विदेशी मोर्चे पर भी भारत के साथ सदैव खड़ा है। वर्तमान में भारत का संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तथा सऊदी अरब से संबंध अपने गहरे दौर में चल रहा है। जिस समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा थे उस समय भी वह भारत को अपना मित्र देश मानते थे तथा नरेंद्र मोदी को अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र मानते थे।ओबामा के बाद डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने लेकिन भारतीय विदेश नीति ऐसी है कि उन्हें भी यह मानने पर मजबूर होना पड़ा कि भारत से ज्यादा उनका गहरा मित्र कोई नहीं है और यही कारण है कि डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व के नेताओं में सबसे ज्यादा तवज्जो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया। भारत में अपने पुराने मित्र रूस का भी साथ नहीं छोड़ा और समय-समय पर रूस के साथ अनेक समझौते करके उसे अपने विश्वसनीय मित्र का दर्जा बरकरार रखा है जिससे उसे यह न लगे कि अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों के कारण उसका संबंध किसी भी तरह से कमजोर हुआ है। गुटनिरपेक्ष सम्मेलनों में प्रत्येक देश के राष्ट्र प्रमुखों को जाना जरूरी होता है लेकिन भारत अब गुटनिरपेक्षता की नीति से किनारे होता जा रहा है क्योंकि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में प्रधानमंत्री प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे बल्कि उनके जगह किसी अन्य मंत्री को भेजा जा रहा है।अब तक हुए गुटनिरपेक्ष सम्मेलन इसका उदाहरण है।। चीन पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से बने हुए खतरों को देखते हुए भारत का गुटनिरपेक्ष नीति को छोड़कर गुट सापेक्षता की नीति के तरफ बढ़ना एक महत्वपूर्ण कदम है। इस कदम की सराहना होनी चाहिए तथा भारत को अपने इस नीति को और मजबूत करके आगे कदम बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने में देश को आसानी हो सके।

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